हर बीमार की नाड़ी ज़रूर देखी जाती है | नाड़ी अपनी लयात्मक गति से धड़कती रहे तभी जीवन की गाड़ी चलती रहती है | यह बात तो खैर तय है , लेकिन बहुतों को शायद नहीं मालूम की नाड़ी की गति देख कर तरह-तरह की बीमारियों का पता लगाया जा सकता है | यह प्राचीन भारतीय परंपरा है |
नाड़ी परीक्षा रोग निदान की एक व्यावहारिक पद्धति रही है | यूनानी और तांत्रिक प्रणालियों के प्रभाव से इसके विकास हुआ | श्रंगधर संहिता में इसका विस्तृत वर्णन है | नाड़ी गति के 15 प्रकारों का वर्णन इसमें है | यदि नाड़ी धीरे चलती है तो भूख ठीक नहीं लगती | नशे की हालत में धीमी होती है और बुखार होने पर गर्म और तेज़ | एक से अधिक बीमारियां होने पर यह धीमी तेज़ होती रहती है |
नाड़ी परीक्षा एक तांत्रिक विज्ञान है,अतः उसकी परीक्षा के कुछ सुनिश्चित विधि-विधान हैं, कुछ निषेध हैं | नाड़ी - परीक्षा - सम्बन्धी साहित्य के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि नाड़ी- परीक्षा- विधान के तीन पक्ष हैं - (1) चिकित्सक सम्बन्धी (2) रोग-सम्बन्धी (3) परीक्षा- सम्बन्धी
चिकित्सक- सम्बन्धी
चिकित्सक को स्थिर चित्त से तन्मयता के साथ नाड़ी-परीक्षा करनी चाहिए अर्थात मन तथा बुद्धि की एकाग्रता के साथ नाड़ी की परीक्षा करे |
नाड़ी-परीक्षा करते समय चिकित्सक सुखासन से पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर परिक्षण करें |
चिकित्सा द्वारा मद्य - जैसे किसी भी मादक द्रव्य का सेवन करके नाड़ी- परीक्षा निषिद्ध है |
नाड़ी परीक्षा करते समय मल-मूत्र आदि का वेग नहीं रहना चाहिए अन्यथा एकाग्रता नहीं बनती है |
धन के लोभी,कामुक चिकित्सक नाड़ी परीक्षा निदान करने मेंअसमर्थ रहते हैं |
चिकित्स्कों को अपने दाएं हाथ की तीन अँगुलियों द्वारा नाड़ी परिक्षण करना चाहिए |
नाड़ी परीक्षा में उतावलापन सही नहीं है कम से कम दो मिनट तक नाड़ी परीक्षण करना चाहिए|
रोगी - सम्बन्धी
रोगी ने मल- मूत्र विसर्जन कर लिया हो अर्थात मलों का वेग - विधारण नहीं होना चाहिए |
जब रोगी सुखासन से बैठा हो, हाथ जानुके अंदर हो या आराम से लेटा हो, तब परिक्षण करें|
वह भूख-प्यास से पीड़ित न हो |
तत्काल भोजन नहीं किया हो, सोया न हो, धूप से न आया हो |
व्यायाम तथा स्नान करने के तत्काल बाद नाड़ी परीक्षा न करें |
मैथुन किया हुआ न हो एवं भूखे पेट न हो, मद्यपान रहित हो |
परीक्षा- सम्बन्धी
प्रातः खाली पेट नाड़ी-परीक्षा करने की परम्परा है |
रोगी कोआराम से लिटाकर या बैठाकर नाड़ी-परीक्षा करनी चाहिए |
बैठे हुए रोगी का कुहनी से आगे का हाथ वैद्य अपने बाएं हाथ पर रखे | ऊर्ध्वमुख- मुद्रा में फिर मणिबंध संधि में अंगुष्ठ- मूल से एक अंगुल नीचे,तीन अंगुलियों से बहि:-प्रकोष्ठी धमनी का परीक्षण करें | बाएं हाथ के सहारे के कारण हाथ शिथिल रहता है और नाड़ी की गति स्पष्ट मिलती है |
रोगी की अँगुलियों को अंदर की ओर थोड़ा मोड़कर केले के समान आकार देकर रखना चाहिए |
स्त्रियों की बाएंहाथ की,पुरषों की दाएं हाथ की नाड़ी देखने का विधान है| उत्तम तो यह है की स्त्रियों तथा पुरुषों दोनों ही की नाड़ी दोनों हाथों में देखनी चाहिए |
वैद्य को अपनी तर्जनी, मध्यमा,अनामिका-तीनों अँगुलियों से नाड़ी की परीक्षा करनी चाहिए | एक-एक अंगुली उठाकर फिर थोड़ा दबाव डालकर गति देखनी चाहिए |
मणिबंध की नाडी- गति में भ्र्म या अस्पष्टता-सी स्थिति हो तो अन्य स्थान की नाड़ी देखनी चाहिए और उनका परस्पर समन्वय कर के देखना चाहिए |
परिक्षण-हेतु रखी अँगुलियों को उठाकर पुनः नाड़ीपर थोड़ा दबाव डालते हुए तीन बार परीक्षा करनी चाहिए |
वायु के अनुसार नाड़ी की गति - वायु के विशेषणों में वक्रा या वक्रगतिका- ये दो सर्वाधिक उल्लिखित हैं | वक्रा विशिष्टगति अर्थात रक्तवाहिनी में अति वक्र विशिष्ट स्वाभाव की गति (लहर)- है | नाड़ी-परीक्षा करते समय वैद्य अपनी तीनो अँगुलियों को एक रेखा में रखें | अंगुलियों के मध्य में स्थित केन्द्रक जो सर्वाधिक संज्ञावाही होता है,उसे नाड़ी के बीचों बीच रखना चाहिए | और ध्यानपूर्वक देखें कि नाड़ी-संवहन एक सीधी रेखा में आ रहा है अथवा कभी दाएं,कभी बाएं अंदर की ओर या बाहर की ओर स्पर्श करता हुआ आ रहा है| जैसी सर्प की गति होती है,यही वक्रता है | दूसरे प्रकार की वक्रता स्फुरण की उच्चता के आधार पर हो सकती है जैसा की जलोका की गति में मिलती है |
पित्तानुसार नाड़ी की गति - चपला,चपलगा,तीव्रा आदि विशेषण पित्त- प्रभाव से प्रवृद्ध नाड़ी की गति- संख्या को सूचित करते हैं अर्थात पित्त- प्रकोप के सर्वसामान्य परिवर्तनों में प्रति मिनट नाड़ी की गति- संख्या में वृद्धि अवश्यम्भावी है, जब की स्फुलिंग,काक-मंडूक आदि जीवों की गति के उदाहरण विशिष्ट स्वभाववाली गतियों के लिए हैं | ये सभी जंतु उछल-उछल कर चलते हैं अर्थात इनका एक स्थान से दुसरे स्थान जाने के मध्य अंतराल रहता है | इस प्रकार पित्त की नाड़ी तय करने के लिए दो प्रमुख आधार बनते हैं - (१) स्पंदन की उच्चता (2) एक स्पंदन से दुसरे स्पंदन के बीच में निर्मित होने वाला अंतराल | इन आधारों पर कह सकते हैं की पित्त की नाड़ी तीव्रगति,उच्चस्पंदनयुक्त एवं अंतराल के साथ उछलती हुई चलती है |
कफ के अनुसार नाड़ी की गति - स्थिरा, स्तिमितता,स्तब्धता,प्रसन्ना आदि विशेषण कफ- नाड़ी के सन्दर्भ में मिलते हैं | स्थिरा तथा स्तब्धता से तात्पर्य नाड़ी की गति- संख्या की कमी तथा नियमितता है | स्तिमितता या चिपचिपापन कफ के अतिरिक्त आम,अजीर्ण जैसी अन्य अवस्थाओं में भी मिलता है | प्रसन्ना से तात्पर्य यह है की नाड़ी पूर्ण और एक सी गति सेचलती हुई मिलती है |
विशिष्ट गतियों के सन्दर्भ में हंस,कबूतर तथा हाथी की गतियों का उदाहरण दिया जाता है | ये सभी आराम से बिना उतावलेपन के चलते हैं | कफ के प्रभाव से भी नाड़ी बिना अकुलाहट के आराम से चलती है |
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